विश्व शांति का स्त्रोत भारतीय संस्कृति और अध्यात्म
विश्व शान्ति चाहते हैं तो भारतीय संस्कृति और अध्यात्म की शरण में जाना पड़ेगा। नहीं जायेंगे तो मानव समाज, प्रकृति और इस पृथ्वी का शीघ्र विनाश को कोई रोक नहीं सकता।
भारतीय संस्कृति और अध्यात्म सर्व में स्वयं को और स्वयं को सर्व में देखने की, अनुभूत करने की क्षमता रखता है। वो मानव का विकास देवत्व से ब्रम्हन तक की अवधारणा संजोए हुए है। वो मानव को पशुत्व और भोगी बनने से सावधान करता है। विश्व में उपस्थित सारी संस्कृतियों, संप्रदायों, सभ्यताओं का सम्मान करता है। वो जोर जबरदस्ती से, आर्थिक व सामाजिक उन्नति के लालच से, धर्म या संप्रदाय परिवर्तन पर विश्वास नहीं करता है। वह मानव को जहां है, जैसा है की स्थिति से चित्त की ऊंची परतों की ओर, मन को उच्च स्थिति पर ले जाने के लिए प्रेरित करता है, जिस वातावरण में ये विकास हो उसका आधार तय करता है। और उसी अनुसार वैचारिक क्षमता प्रदान करता है। भारतीय अध्यात्म किसी पर शासन करने के लिए नहीं अपितु सबकी समभाव से सेवा करने के लिए प्रोत्साहित करता है। ये भौतिक जगत में, जाग्रत अवस्था में मानव चित्त की केवल बौद्धिक क्षमता तक का विकास नहीं, उससे ऊपर चेतना तक की पहुंच का मार्ग प्रशस्त करता है।
वैचारिक क्षमता
भारतीय साहित्य में, कई बार, कई स्थानों में अति उच्च एवं श्रेष्ठ विचार प्रकट हुए हैं। जिसमें से हम केवल कुछ पर विचार करेंगे।
(1) तैत्तिरीय उपनिषद् का ये श्लोक आज से हजारों वर्ष पूर्व लिखा गया था...
सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामया।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दुख भागभवेत॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः॥
अर्थ: "सभी प्रसन्न रहें, सभी स्वस्थ रहें, सबका भला हो, किसी को भी कोई दुख ना रहे। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः"
ये श्लोक कौन सा भाव दर्शाता है। यहाँ मेरा या तेरा नहीं है, शत्रु या मित्र नहीं है, अच्छे-बुरे की बात नहीं है, राजा प्रजा की बात नहीं है, केवल गरीब या केवल अमीर की बात नहीं है, मालिक नौकर, शिक्षक विद्यार्थी नहीं, केवल गुरु या केवल शिष्य की बात नहीं, अपितु सर्व की मंगल की बात कही है। ये शुद्ध विचार हैं। किसी एक धर्म या संप्रदाय की बात नहीं है सबकी बात कही है। केवल स्त्री के लिए या केवल पुरुष के लिए नहीं। केवल एक वर्ण के लिए नहीं सब वर्णों के लिए कही है।
ये विचार बुद्धि के नहीं हैं। चेतना के स्तर के हैं। ये उच्च भाव पशु वृत्ती, भोगवृत्ति, जाति वृत्ती वाला मनुष्य नहीं समझ सकता। सर्व का भाव आत्मन के स्तर पर ही प्रकट होता है।
(2) शान्ति मंत्र:
ॐ द्यौ: शान्तिरन्तरिक्षं शान्ति:पृथिवी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:।वनस्पतय: शान्तिर्विश्वेदेवा: शान्तिर्ब्रह्म शान्ति:सर्वं शान्ति:, शान्तिरेव शान्ति: सा मा शान्तिरेधि ॥ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति: ॥
यजुर्वेद के इस शांति पाठ मंत्र में सृष्टि के समस्त तत्वों व कारकों से शांति बनाये रखने की प्रार्थना करता है।
इसमें यह गया है कि द्युलोक में शांति हो, अंतरिक्ष में शांति हो, पृथ्वी पर शांति हों, जल में शांति हो, औषध में शांति हो, वनस्पतियों में शांति हो, विश्व में शांति हो, सभी देवतागणों में शांति हो, ब्रह्म में शांति हो, सब में शांति हो, चारों और शांति हो, शांति हो, शांति हो, शांति हो।
यहां ये व्यक्त उच्च स्तरीय विचार एवं भाव चेतना के स्तर के हैं। सर्व के लिए है। पृथ्वी, जल से प्रारंभ होकर संपूर्ण विश्व, ब्रम्ह तक शान्ति की प्रार्थना की गई है। कितना विस्तृत दृष्टिकोण है। हजारों वर्षों पूर्व लिखा गया है। इनके उच्च स्तर को देखते हुए प्रश्न चिन्ह लगता है कि मानव ने हजारों वर्षों में आगे की ओर विकास किया है अथवा पीछे चले गया है।
क्रमशः शेष अगले भाग में
धन्यवाद, प्रणाम 🙏🙏🌹🌹
वसुधैव कुटुंबकम् ही भारतीय संस्कृति की पहचान रही है। सुंदर लेख।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद शैल जी, ये वाक्य भी जुड़ेगा अगले चरण में,
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