गतांक से आगे...
व्यष्टि, समष्टि और परमेष्टि
अब इतने शुद्ध और श्रेष्ठ विचारों, सूत्रों, श्लोकों की श्रंखला कहाँ से आयी? इसका आधार क्या है? चित्त वृत्ति का विकास क्रम, सबसे ऊंची परत चेतना की परत पर। भारत के ऋषि, मुनियों ने, दार्शनिकों नें अपने चिंतन मनन के द्वारा ज्ञान दृष्टि से चित्त द्वारा चित्त के पार अपने सत्य स्वरुप चैतन्य को जाना और उस स्वरुप में स्थित हुए।
अपने स्वरुप में स्थित होकर के, अब कौन से विचार प्रकट होंगे? कौन सी वाणी प्रकट होगी? अगर हुई तो वही होगी, जिसका उदाहरण ऊपर देख चुके हैं। जहाँ संकीर्णता लेशमात्र भी नहीं है, वहां विचार प्रकट होंगे, तो उच्च श्रेणी के ही होंगे। बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय ही होंगे अथवा उससे भी आगे सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय होंगे।
व्यष्टि
व्यष्टि भाव अर्थात केवल मैं तक सीमित रहता है। मैं और मेरा, इसके अतिरिक्त सब दूसरा या दूसरे। यहां अहम भाव शरीर पर रहता है। शरीर के रक्षण, भरण-पोषण के लिए ये भाव बहुत आवश्यक है। इस स्थिति में, कितना भी शुद्ध और सात्विक भाव आ जाये, अहम का अति सूक्ष्म प्रक्षेपण वहां रहता ही है। स्वयं कितना भी उन्नति कर ले, डॉक्टर, इंजीनियर, शिक्षक, वैज्ञानिक बन जाय, इसके साथ मैं डॉक्टर, मैं इंजीनियर, मैं वैज्ञानिक इत्यादि... जुड़ा ही रहता है।
कई बार तो विचित्र स्थिति होती है। गुरु कृपा से आत्मन की झलक हो जाये, अहंकार शुद्ध रूप से आत्मन पर विलीन नहीं हुआ, तो शिवोहम में, मैं तो शिव हो गया परन्तु शेष सब भी उसी शिव में है, ये पक्का नहीं हुआ, तो अपने गुरु का गुरु बन जाता है। गुरु का गुरु नहीं भी बना, फिर भी अपने को गुरु का श्रेष्ठ शिष्य समझेगा और अन्य गुरु भाई और बहनों को हेय दृष्टि से देखेगा। यहां गुरु के विशेष संरक्षण की आवश्यकता होती है। गुरु उसको व्यष्टि भाव से परे खींचता है। साक्षी भाव की साधना जारी रखने के लिए कहता है। जब तक साक्षी भाव पक्का नहीं होता तब तक गुरु अपनी दृष्टि रखता है। उसके कर्मों में सेवा भाव, समर्पण, स्वीकार भाव इत्यादि गुणों का समावेश करवाता है।
भारतीय संस्कृति और अध्यात्म की यही विशेषता है कि व्यक्ति का विकास व्यष्टि भाव तक सीमित रखना नहीं, उसके आगे समष्टि भाव जागृत करना भी है।
समष्टि
व्यक्ति का व्यष्टि से समष्टि में पदार्पण भौतिक एवं सांसारिक रूप से भी होता है। वैसे तो जन्म ही परिवार में होता है, जन्म से ही माता, पिता, भाई, बहन, दादा, दादी, नाना, नानी, वा अन्य संबंधी रहते हैं। परन्तु उस समय बुद्धि का विकास इतना नहीं होता है इसलिए पता नहीं चलता। और फिर कई कार्य व्यक्तिगत रूप से करने पड़ते हैं, अपनी दिनचर्या में सारे कार्य व्यक्तिगत ही होते हैं इसलिए व्यष्टि भाव बना रहता है। परन्तु बड़ा होते ही विद्यालय में जाना, साथी संगियों से मेलजोल, समूह में खेलना इत्यादि समष्टि भाव बढ़ाता है। जबकि अध्ययन करना, परीक्षा पास करना, प्रतियोगिताओं में अग्रणी होना, सफलता प्राप्त करना इत्यादि, फिर व्यक्तिगत करने पड़ते हैं। इसलिए व्यष्टि भाव बना रहता है। परन्तु इस के बाद जीवन में आगे बढ़ने के लिए व्यापार करना है तो समाज से जुड़ना पड़ता है। नौकरी करनी है तो भी कोई संस्थान में प्रवेश लेकर कार्य करना होता है। लोगों से जुड़ना होता है। समष्टि भाव में रहना पड़ता है। हम कह सकते हैं कि मानव जीवन में इस स्थिति तक एक प्रकार से व्यष्टि और समष्टि का समावेश रहता है। ये प्राकृतिक है।
लेकिन विवाह के उपरान्त और फिर जीवन में अन्य जीवों अर्थात बाल-बच्चों का पदार्पण व्यष्टि से समष्टि की ओर ही प्रवाह ले जाता है। अब व्यक्ति इसे स्वीकार भाव से हंसते हुए करे या जबरदस्ती करे, उसे करना ही पड़ता है।
परन्तु संसार में रहते हुए व्यक्ति को वास्तव में व्यष्टि समष्टि भाव का कुछ पता नहीं होता अज्ञान वश, लेकिन उसे जबरदस्ती व्यवहार करना पड़ता है। मेरा, तेरा, में ही लड़ाई झगड़ा उसके जीवन में चलता रहता है। दूसरे से छीन कर सब मेरे पास आ जाय। लोगों में, समाज में सेवा भी करनी है तो वो भी स्वार्थ वश करता है। मैं चुनाव जीत जाऊं इसलिए सेवा करता है। मेरी प्रतिष्ठा हो जाय, लोगों से संपर्क हो जाय, व्यापार बढ़ेगा, इसलिए सेवा करता है। पंडित जी ने बोल दिया तेरा ये रुका हुआ काम पूरा हो जाएगा, दस लोगों को खाना खिला दो। तो वैसा ही करता है।
परंतु अध्यात्म में साधक जब आत्मन में स्थित होता है। साक्षी भाव की साधना करता है। तब उसे समष्टि भाव की वास्तविकता का पता चलता है। उसे पता है कि अनुभवकर्ता एक ही है जो सर्व रूपों से अनुभव ले रहा है। सारे अनुभव चित्त के अनुभव हैं। अनुभवकर्ता स्तर पर भी कोई दूसरा है नहीं। सारे अनुभव भी मात्र चित्त के अनुभव हैं। अस्तित्व तो संपूर्ण है। अद्वैत है। परंतु अस्तित्व की बात हम अगले चरण में करते हैं।
अभी अनुभवकर्ता को लेते हैं। अनुभवकर्ता का कोई रूप नहीं, कोई गुण नहीं है, चैतन्य है, असीम है, सर्व है। ऐसा कोई स्थान नहीं जहाँ अनुभवकर्ता नहीं। यहां पर वास्तव में व्यष्टि भाव से परे समष्टि भाव का प्रादुर्भाव होता है। सर्व, मैं हूँ। सबमें मैं, सब मेरे में, कोई दूसरा दिखता नहीं। यहां पर समष्टि भाव पक्का होता है। जगत में ऊपर ऊपर से भेद केवल दिखने के लिए दिखता है, परंतु ज्ञानी की दृष्टि गहरी होती है अभेद होती है, वो समष्टि भाव में रहकर ही विचरता है। उसकी दृष्टि तत्व पर होती है। समुद्र की लहरों को देख कर जल का लक्ष्य करता है। अनुभव को देखते हुए अनुभवकर्ता का लक्ष्य करता है।
भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल से ही मानव उत्थान व्यष्टि से समष्टि की ओर जाने के लिए मार्ग प्रशस्त करता है। इसी ज्ञान का सूत्र पकड़ कर लक्ष्य प्राप्ति की ओर अग्रसर होता है।
मानव जीवन, चेतना में कुछ काल अथवा समय व्यतीत करता है, समष्टि भाव में व्यवहार करता है, तो उसका साक्षी भाव और दृढ़ होता है, पक्का होता है। विकासक्रम में और आगे बढ़ता है तो अनुभव और अनुभवकर्ता के बीच का भेद, अन्तर समाप्त होता है। चाहे ब्रम्हज्ञान की कक्षा में ये पता चल गया हो ये दोनों दो नहीं हैं अद्वैत में हैं, ब्रम्ह-भाव आने में समय लग जाता है। पुराने संस्कार, या एकत्रित अशुद्धियों के कारण, शुद्धीकरण में समय लग जाता है, अहम को विलीन होने में समय लग जाता है।
परमेष्टि
जैसे जैसे अनुभवकर्ता और अनुभव का अंतर शून्य की ओर पहुंचता है यहाँ अनुभवक्रिया घटित होती है। निरंतर चलते-फिरते, उठते बैठते, ये व्यष्टि समष्टि दोनों भाव परमेष्टि में समा जाते हैं। मैं और मेरा, तू और तेरा, सब आप ही आप में समा गये। सम्पूर्ण अस्तित्व ही है। उसी के दर्शन हो रहे हैं उसी को। संपूर्ण विश्व रूप, विराट रूप प्रभु, परमात्मा, परम ब्रम्ह सब अस्तित्व। ये परमेष्टि भाव है।
भारतीय संस्कृति और अध्यात्म इस परमेष्टि, परम में स्थित है। वहां तक पहुंच हैं। अब उच्च शिखर से अस्तित्व में उच्च वाणी, विचार ही प्रकट होंगे, जो सार्वभौमिक एवं
सर्व-कालिक होंगे। सब के लिए होंगे। जिसकी चर्चा पिछले भाग में की है। उस रचनाकार नें अपना नाम भी नहीं लिखा। नाम की बात आती है तो गुरु का नाम आता है। ये स्थिति, अहम के विलीन होने की पराकाष्ठा है, जो हमारे ऋषि मुनियों ने प्राप्त की। इसीलिए उन्होंने जो भी बातें लिखी हैं, वो सर्व भाव में लिखी गई हैं। कल्याण होने की बात कही है, तो सब के कल्याण की बात कही है। मंगल होने की बात कही है तो मेरा, तेरा, सबका, केवल मनुष्य नहीं, सभी प्राणियों का मंगल हो, ऐसा भाव। ये परमेष्टि भाव है। यहां मानव चैतन्य भाव में है। चैतन्य ही है सर्व में और सर्व है चैतन्य में। अनंत हो गया भाव। पृथ्वी पर शांति की कामना है, लेकिन अंतरिक्ष में शांति हो ये भी प्रार्थना की है।
.... शेष अगले भाग में
वसुधैव कुटुंबकम् को सार्थक और सुंदर रूप से चित्रित किया है। सार्वभौमिकता में एकता का इससे सुंदर चित्रण नही हो सकता।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद शैल जी, 🙏🙏🌹🌹
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