मंगलवार, 26 जुलाई 2022

अखण्ड मंडलाकारं व्याप्तं येन चराचरम

अखण्ड मंडलाकारं, व्याप्तं येन चराचरम....

गुरु वंदना की ये पहली पंक्ति है। अद्भुत है।

इसमें उस अस्तित्व का वर्णन हो गया, उसको नाम कोई भी दे दो। वो तत्व वही रहेगा, वही मूल वस्तु है, जिसका साक्षात्कार गुरु की शरण में जाने से गुरु नें करवा दिया। गुरु स्वयं उसका साक्षात्कार कर चुका है। गुरु स्वयं उस भाव में स्थित है। अनुभवक्रिया में। कोई विश्वरूप परमात्मा, कोई विश्वरूप हरि, कोई शिव-शक्ति, कोई विश्वं विष्णु, विश्व चित्त इत्यादि कुछ भी कह दो अस्तित्व वही रहेगा।

अखण्ड 

अखंड है अस्तित्व। निरन्तर है। कोई विभाजन नहीं है। जहाँ भी है, जो भी है, अस्तित्व ही है।

अद्वैत है। अनंत है। जब सब कुछ अस्तित्व है। तो सदैव जुड़ा हुआ है। कोई दूरी नहीं है। वही नाद, नाद रचनाओं में अनंत रूपों में प्रकट है। हमारे आपके बीच दूरी भासमान है लेकिन क्या बीच में वायु नहीं है? आक्सीजन नहीं है? कार्बन डाई आक्साइड नहीं है? दिन में सूर्य का प्रकाश नहीं है। उष्मा नहीं है क्या? ये सब क्या अस्तित्व नहीं है। तो कहीं कोई अन्तर नहीं है। कोई दूरी नहीं है। निरंतर है। अविभाजित है। अखंड है।

ये अस्तित्व दोनों तरीके से अखण्ड है। उसका एक भाग अनुभवकर्ता, साक्षी, चैतन्य, दृष्टा, शून्य तो अपरिवर्तनीय, नित्य, सत्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, असीम है। ये तो अखण्ड है। ये अद्वितीय है। पक्का अखण्ड है।

जो भाग माया है। दूसरा भाग, उसका वर्णन तो ऊपर पहले ही हो चुका है। ये सारे अनुभव चित्त शक्ति का खेल हैं। नाद रचनायें ही अनंत रूपों में प्रकट होकर अनुभूति मात्र हैं। तत्व शून्य है। न आकार, न गुण। वो अनंत सम्भावनाओं के साथ भासमान है। इसलिए ये माया भी, लीला है खेल है। निरंतर है अखण्ड है।

माया अनुभव है तो जिसकी माया है, जिसके लिए है, वो मायाधीश है, अनुभव कर्ता है। एक चित्त अर्थात चेतना है दूसरा चैतन्य है। दोनों दो नहीं हैं इसलिए अद्वैत हैं तत्व शून्य है। इसलिए अखंड है।

मंडलाकारं

अब आते हैं मंडलाकारं.., अस्तित्व मंडलाकार है। वृत्तीय है। चक्रीय है। निरंतर उत्पत्ति, संरक्षण और संहार के चक्र में उसका प्रकट रूप है । नाद है। परिवर्तन है। माया रूप है। माया भास हो रही है सदैव अनुभव में। सारे अनुभव मंडलाकार हैं। स्थूल रूप में देखें तो पृथ्वी, चन्द्र, सूर्य, ग्रह, उपग्रह, तारे, नक्षत्र, आकाश गंगाएं, नीहारिकाऐं, सब मंडलाकार हैं और उनकी आवृति भी उसी प्रकार से हो रही है। सूक्ष्म में आयें तो अणु परमाणु भी मंडलाकार और उनके अंदर भी आवृति भी वृत्तीय अथवा मंडलीय हो रही है। और सूक्ष्मतर में जायें तो सब चित्त का खेल है। चित्त चित्तवृत्ती है। यहां भी वृत्तीय है। 


व्याप्तं येन चराचरम.. 

ये सारे चर, अचर, स्वयं अस्तित्व ही हैं जिसमें स्थित हैँ वो भी अस्तित्व है, अनुभवकर्ता रूप में वो अस्तित्व अंदर, बाहर, ऊपर, नीचे, बायें, दायें, यत्र, तत्र, सर्वत्र, विराजमान है, विराजित है। कोई ऐसा है नहीं जो चैतन्य, साक्षी से बाहर हो। अब जो शून्य है वो अनंत है, वो कहां नहीं है ढूंढने जाएंगे तो कोई जगह नहीं मिलेगी। जगह मिल गई तो उसका अनुभवकर्ता को ही उसका अनुभव हुआ। अनुभवकर्ता पहले से ही उपस्थित है।


तो हो गये दर्शन अस्तित्व के, जिसके वर्णन में ये पंक्ति है। इसके दर्शन तो गुरु ने ही कराये हैं। गुरु की शरण में आकर, उनके ज्ञान का श्रवण किया, उन्हों ने ये ज्ञान दृष्टि दी तो पता चला कि अस्तित्व क्या है, विश्वरूप प्रभु, परमात्मा वही है, उसी के अनेक नाम हैं। ऐसे गुरुदेव की वंदना प्रारंभ करने के लिए यही शुरूआत, यही प्रारंभ अभीष्ट है। जिसका साक्षात्कार उन्होंने करवाया।


ॐ श्री सदगुरुवे नमः ।

8 टिप्‍पणियां:

  1. जो अखंड अनंत अनादि है, और वृत्ति रूप में मंडित है।
    अति सुंदर।

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  2. बहुत ही सुंदर तरीके से आपने समझाया है

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  3. बहुत ही सुंदर लेख है रमाकांत जी 🙏🏻🌸🌼

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  4. श्लोक का वर्णन बहुत ही सुन्दरता से किया आपने रमाकांत जी।
    पद्मजा 🙏🌹

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