ध्यान
जगत में मनुष्यों द्वारा निष्पादित सारे कार्यों को ध्यान से ही किया जाता है। खाना बनाना है तो ध्यान पूर्वक ही बनाना पड़ेगा। कार चलानी है तो ध्यान पूर्वक चलानी पड़ेगी।लेख लिखना है तो ध्यान पूर्वक लिखना है।
ज्ञान मार्ग आध्यात्मिक मार्ग है। इसमें ध्यान अद्भुत तरीके से और बड़ी सरलता से समझाया है। यहां ध्यान चित्त एवं चित्तवृत्ति पर नियंत्रण हो इसलिये है।
इसमें अनन्य ध्यान.. अपना ध्यान केवल एक अनुभव पर करना और बाकी शेष अनुभवों से ध्यान हटाना, अनन्य ध्यान है।
समावेशी ध्यान में सारे अनुभवों पर एक साथ ध्यान करना। अथवा अनन्य ध्यान में धीरे धीरे अन्य अनुभवों को जोड़ देना समावेशी ध्यान है।
ध्यान को और गहरे से समझने के लिए अस्तित्व को पुनः स्मरण करते हैं।
अस्तित्व को परिभाषित किया गया है कि जो भी है, जैसा है वो अस्तित्व है..., चित्त द्वारा इसको दो भागों में विभाजित किया जाता है क्योंकि उसकी एक साथ देखने की क्षमता नहीं है। इसलिये इसमें तीन भाव हैं...
पहला भाव अनुभवकर्ता, ये अस्तित्व का वो भाग है जो स्वयं अप्रकट है, अपरिवर्तनीय है, साक्षी है, और अस्तित्व के प्रकट भाग का अनुभव कर रहा है, उसका साक्षी है।
दूसरा भाव अनुभव अर्थात् अस्तित्व का प्रकट रूप जो परिवर्तन शील है। जिसका अनुभव निरंतर अनुभवकर्ता को हो रहा है।
तीसरा भाव अद्भुत है अनुभवक्रिया, जिसमें अस्तित्व सम्पूर्णता में है। वास्तव में अनुभव क्रिया ही है, निरंतर है। जिसमें अनुभवकर्ता और अनुभव एक साथ हैं।यहां अद्वैत है, दो नहीं है।
ये तीनों भाव अस्तित्व में ही हैं। जो स्वयं में सम्पूर्ण है।
ज्ञानी साक्षी भाव में, चेतना में रहता है, उसका अनुभवक्रिया भाव सदैव बना रहता है, उसका समावेशी ध्यान सदैव बना रहता है। वो आनंद में रहता है। जगत से उसका सारा व्यावहार समावेशी ध्यान में रहता है।
जब ज्ञानी को मौज मस्ती होती है तो किसी एक अनुभव पर अनन्य ध्यान कर लेता है। गुरु की याद आ गयी उसी पर ध्यान कर लिया। गुरु में ही सम्पूर्ण अस्तित्व के दर्शन हो गए। किसी बिन्दु पर ध्यान गया वही हो कर रह गया।
ज्ञानी की मौज का कोई अंत थोड़े है। अनन्य ध्यान करते करते, उस एक अनुभव को भी छोड़ दिया... अब यहां स्वयं साक्षी हो गया। इस स्थिति में समय और स्थान सबका अभाव है। बस जो है वो है।
फिर अनुभवक्रिया में स्थित सम्पूर्ण जगत का आनंद चैतन्य समाधि में लेता है।
ज्ञानी का चित्तवृत्ति नियंत्रण भी बड़े अद्भुत तरीके से होता है। जहाँ जहाँ चित्तवृत्ति होती है वहीं वो अस्तित्व को खड़ा कर देता है।
गुरुकृपा से शब्दों का प्रयोग कर लिया जाता है उस अव्यक्त के लिए।
ॐ श्री गुरुवे नमः।
बहोत अच्छा 👌👌👌🙏🙏🙏
जवाब देंहटाएंधन्यवाद🌺🌺🙏🙏
धन्यवाद जी लेख पढ़ने के लिए।
हटाएंबहुत अच्छा है।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सुमा जी लेख पढ़ने के लिए।
हटाएंसम्पूर्ण दर्शन हो गए अस्तित्व के
जवाब देंहटाएंअति सुंदर
धन्यवाद शैल जी लेख पढ़ने के लिए
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