मानव जीवन एक प्रवाह है।
शरीर में विभिन्न गतिविधियां चल रही हैं। श्वांस चल रही है। हृदय गतिमान है। धड़क रहा है। पूरे शरीर में रक्त संचार हो रहा है। इसके विभिन्न अंग किडनी, लिवर, पैंक्रियाज़ इत्यादि कार्य कर रहे हैं। सारे अंग प्रत्यंग आपस में लय में हैं। भूख, प्यास, रोग, निरोग, मल मूत्र विसर्जन, इत्यादि, ये सब स्वयंमेव हो रहा है।एक प्रवाह की भांति हो रहा है। ऐसा हो रहा है कि इसमें साक्षी भाव में रहने के बाद भी इनमें कई प्रक्रियाओं का कोई आभास नहीं रहता अर्थात इतनी सरलता और सुगमता से हो रहा है कि अनुभूत नहीं होता। जबकि कुछ का पता चलता है। परंतु ये पक्का है कि ये सब हो रहा है।
अब आते हैं मन पर। इसका अविष्कार ही ऐसा है कि एक छोर से दूसरे छोर तक, ऊपर आकाश से नीचे पाताल तक सदा स्कैनर की भांति दौड़ता रहता है। इन्द्रियों द्वारा परोसे गए विषयों को चित्तवृत्तियों के अनुसार रंग कर आगे परोस देता है। पशु, भोग, जाति, भाव आदि वृत्तियों के अनुसार मानव को दौड़ाता रहता है। केवल एक भूख मिटाने के लिए उसको ५६ भोग के व्यंजन चाहिए। शरीर को ढकने के लिए बीसियों प्रकार के वस्त्र चाहिए। सुन्दर दृश्य देखने के लिए हजारों वीडियो, चलचित्र चाहिए। कानों को मधुर संगीत के आडियो कैसेट चाहिए। अर्थात कोई अंत नहीं है। ये सब एक प्रवाह की तरह चल रहा है। जीव इस बहाव में बहता जा रहा है। थोड़े बहुत सुख दुख को प्राप्त करने के लिए, उसके पीछे भागता रहता है।
इसी प्रकार विचारों का प्रवाह निरंतर होता रहता है। जीवन के इस सूक्ष्म महाभारत में कई बार अर्जुन की तरह पलायन करने के, हथियार डालकर कर्मक्षेत्र से भागने के विचार उत्पन्न होते हैं।
साधारण मानवी बुद्धि भी विचारों के, मन के, शरीर के पीछे भागती रहती है। हानि लाभ, विजय पराजय के कुचक्र में फंसी रहती है। उल्टे-सीधे कर्मों की ओर प्रवृत्त रहती है।
अहंकार की अहम वृत्ति तो और विचित्र है। इसको स्वामित्व लेने की आदत है। ये मैं हूं, ये मेरा है। हरेक के लिए यही कह देता है। विशेष कर सफलता के सारे श्रेय स्वयं लेता है, असफलताओं के लिए दूसरे रूपों को दोषारोपण करता है।
इन सब उपकरणों से लैस ये मानव जीवन (जीवन का एक बहुत लघु अंश) एक प्रवाह की तरह स्वचालित रूप से चल रहा है।
इस जीवन का (एवं समस्त जीवनों का) मालिक साक्षी, चैतन्य जिसकी चेतना में ये प्रवाह चल रहा है। वो पीछे रह जाता है।
अर्जुन की भांति जब घोर निराश होकर अपने सद्गुरु / कृष्ण की शरण में जाता है, वहां समर्पण करता है, तब सद्गुरु दया करके करुणा वश उसे स्वयं का, आत्मन का साक्षात्कार कराते हैं। तब वह अपने मूल स्वरुप साक्षी, चैतन्य, अनुभवकर्ता में स्थित होता है। साक्षीभाव से इस प्रवाह का आनंद लेता है। उसे पता चलता है कि वो प्रवाह नहीं है। वो इस प्रवाह का स्वामी है, साक्षी है, उसी की चेतना से ही ये प्रवाह प्रवाह है। अब इस प्रवाह का आनंद लेता है। वो इस का साक्षी है।
कोटिशः धन्यवाद गुरुदेव का।
ऊँ श्री गुरुवे नमः।
👌👌👌🌹🌹🌹
जवाब देंहटाएंहमेशा की तरह बहोत अच्छा लेख है 🌼🌼👍👍👌👌
जवाब देंहटाएंधन्यवाद🌺🌺🙏🙏
सुंँदर लेख।
जवाब देंहटाएंजीवन से जुड़ा बहुत अच्छा लेख है 🙏
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंअति सुंदर 🙏🙏🙏
जवाब देंहटाएंअपने अंतर का महाभारत।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर!!!🙏🌺
बहुत सुन्दर 🙏🏻🙏🏻🙏🏻
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