अद्वैत के बाद द्वैत कहाँ?
एक बार जब सिद्ध हो गया कि ये स्थूल दिखने वाला जगत वास्तव में सूक्ष्म ही है, और ये सूक्ष्म अनुभूत होने वाला जगत प्रकाश ही है और ये प्रकाश ही सूक्ष्म और फिर स्थूल बन बैठा है।
उसके बाद तो फिर प्रकाश ही प्रकाश है। सूक्ष्म भी प्रकाश है। स्थूल भी प्रकाश ही है।
यही ज्ञानी की स्थिति है। अब उसे कोई दूसरा दिखता ही नहीं। सब ब्रम्ह ही है।सब वही आत्मन है। चैतन्य है। उसी की चेतना से चित्त और चित्त से प्रकट दिखने वाला ये जगत।
ज्ञानी चैतन्य होकर ही रहता है।
जब दूसरा कोई है ही नहीं, तो फिर वही अद्वैत बचता है। अनुभव को देखते ही चेतना प्रकट हो जाती है।
आभूषण को देख कर स्वर्ण प्रकट हो जाता है, अरे वाह क्या आभूषण बना है कितना सुन्दर बना है। है तो स्वर्ण ही, चाहे आभूषण या सुन्दरता मिथ्या हो लेकिन है तो स्वर्ण ही। खेल तो स्वर्ण का ही है।
ज्ञानी उस रहस्य को जान जाता है। उसने उस अमृत का स्वाद चख लिया है बाकी से क्या अर्थ?
अब अद्वैत पक्का हो गया, दूसरा कोई है नहीं, सारे रूप नाम वही चैतन्य, वही नारायण, उसके लिए सर्व नारायण ही है।
ये है अद्वैत की महिमा। गुरु कृपा से ही पता चलता है।
ॐ श्री गुरुवे नमः।
धन्यवाद🌺🌺🙏🙏
जवाब देंहटाएं``अद्वैत के बाद द्वैत कहा,,
बहुत ही अच्छा मनन है,
आपके इस सार्थक प्रयास के लिये- शुक्रिया🙏🙏
लेख पढ़ने के लिए आभार। गुरु कृपा ही है ।
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अद्वैत का सुन्दर वर्णन 🙏🌺
जवाब देंहटाएंलेख पढ़ने के लिए आभार। गुरु कृपा ही है ।
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बहुत अच्छा विश्लेषण
जवाब देंहटाएंलेख पढ़ने के लिए आभार। गुरु कृपा ही है ।
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गुरु कृपा 🙏🏻
जवाब देंहटाएंजी, सही कहा सुमा जी । लेख पढ़ने के लिए आभार। गुरु कृपा ही है ।
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🌹🌹🌹👌👌👌
जवाब देंहटाएंलेख पढ़ने के लिए आभार शिवम जी । गुरु कृपा ही है ।
हटाएं🙏🙏🌹🌺
अति सुंदर
जवाब देंहटाएंलेख पढ़ने के लिए आभार। गुरु कृपा ही है ।
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जी बिलकुल
जवाब देंहटाएंसूर्य प्रगट हो तब सभी रंग उसी के हैं, ज्ञान हो जाता है।
बहुत सुंदर मनन।
बिल्कुल सही कहा शैल जी। लेख पढ़ने के लिए आभार। गुरु कृपा ही है ।
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बहुत सुंदर मनन है आपका
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