जब बहु काल करिये सत्संगा । तबहि होहि सब संशय भंगा ।। (उत्तरकांड 60.2)
रामायण के प्रसंग में शिव गरुड़ से कहते हैं कि सभी संशय और प्रश्नों का समाधान तभी हो सकता है जब बहुत काल (समय ) तक सत्संग किया जाय।
यह सत्सङ्ग तत्वदर्शी, प्रत्यक्षदर्शी सद्गुरु के सानिध्य में ही होना चाहिए। उन्ही के अंतर्गत एक जिज्ञासु, मुमुक्षु अथवा किसी मोह ग्रसित मनुष्य का ज्ञान के प्रकाश में ही अज्ञान रूपी अन्धकार का विनाश होगा। ये ज्ञान चर्चा , प्रश्न उत्तर के माध्यम से ही होता है। जब अनुभवयुक्त ज्ञान साधक के मन मस्तिष्क में अपरोक्ष अनुभव द्वारा उतरता है तो ही उसे सत्य का दर्शन अथवा साक्षात्कार होता है।
बहुत काल शब्द जोड़ा गया है , अर्थात श्रवण और मनन तो हो जाता है, बुद्धि से स्वीकार हो जाता है सत्य स्वरुप, आत्मज्ञान, साक्षी, परन्तु सत्य स्वरुप होने का समझ आने के लिए निदिध्यासन चाहिए , जो साधक को स्वयं करना पड़ता है। गुरु का मार्गदर्शन रहता है परन्तु फिर भी यहाँ साधक को स्वयं, ज्ञान स्वरुप हो जाना पड़ता है।
मोह की, अज्ञान की कितनी मोटी परत जमी है, जन्म जन्मांतरों से चली आ रही है, चित्त वृत्तीयाँ क्या चल रही हैं , पूर्व जन्मों की क्या साधना हुई है , पूर्व प्रारब्ध क्या है, यह सब मिल कर निश्चित होता है कि कितना समय लगेगा।
परन्तु साधक को कभी भी चिन्तित नहीं होना चाहिए। दृढ़ निश्चय के साथ , पूर्ण समर्पण से , गुरु वचनों के प्रति श्रद्धा और विश्वास के साथ लगा रहने से ही , साधक के संकल्प के साथ गुरु का संकल्प जुड़ता है।
फिर जो होता है वह आश्चर्य जनक होता है। अद्भुत होता है। योगक्षेम घटित होता है। फिर अंतर अनुभव प्रगट होने प्रारम्भ हो जाते। सारे बचे हुए अथवा नए प्रश्नों के उत्तर स्वयं आने प्रारम्भ हो जाते हैं। हजारों जन्मों का एकत्रित अज्ञान एक ही जन्म में नष्ट हो जाता है। इसी को कहते है गुरु कृपा। यही साक्षी, आत्मन में स्थित होना है। जीवन ऐसे चलता है जैसे एक अनुभवी वाहन चालक, वाहन चलाता है, जो बिना प्रयास के चलाता है।
इसके बाद का ज्ञानी का जीवन एक ज्ञानी भक्त की तरह व्यतीत होता है। अस्तित्व रूप में सदैव सर्वदा गुरु , गुरु क्षेत्र , विश्व रूप गुरु अथवा विश्व रूप प्रभु के दर्शन करते हुए, समर्पित रहते हुए, स्वीकार भाव से, सेवा भाव से शेष जीवन जीता है। जिसके कारण धीरे धीरे उसका अहम् शून्यता की और अग्रसर होता है। यहाँ उसकी यात्रा व्यष्टि से समष्टि और फिर परमेष्टि की ओर बढ़ते हुए व्यतीत होती है। वो स्वयं विश्वरूप होकर रहता है।
गुरु का स्मरण करते ही, साक्षी भाव, आत्मन भाव प्रकट हो जाता है। तुरंत एक क्षण में ही , कितना भी संसार रूपी भव में डूबा हो , इस साक्षी भाव में आकर वह जगत से पार हो जाता है। अर्थात कितने ही झंझावातों में, ज्ञानी प्रभावित नहीं होता, कमलकी भांति कीचड़ में जिस प्रकार अप्रभावित रहता है। अर्थात "नाम लेत भाव सिंधु सुखाहीं , कर विचार देखहु मन माहीं।"
श्री गुरुवे नमः
बहुत सुंदर। मेरे लिए तो ये डूबते को तिनके. का.सहारा जैसे।। धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंजी, धन्यवाद और आभार,
हटाएंअति सुंदर
जवाब देंहटाएंशायद इसलिए ज्ञान होने के बाद वह द्विज हो जाता है
अर्थात दूसरा जन्म।
धन्यवाद शैल जी सही कहा आपने
हटाएंबहुत सुन्दर लिखा है आपने, ऐसे ही गुरु कृपा से सहज ही ज्ञान हो जाता है, नहीं तो कई जीवन लग जाते हैं।
जवाब देंहटाएं🙏🙏
धन्यवाद अश्विन जी, शत प्रतिशत सही है आपकी बात
हटाएंबहुत सुंदर 🙏🙏🌹🌹
जवाब देंहटाएंजी धन्यवाद
हटाएंबहुत ही सुंदर लेख है🌺🌺🙏🙏
जवाब देंहटाएंजी धन्यवाद
हटाएंसुंदर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद कुंवर जी
हटाएंअति उत्तम
जवाब देंहटाएंधन्यवाद आपको अज्ञेय जी
हटाएंBeautifully explained
जवाब देंहटाएंThanks Jaya ji
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