ज्ञान के बाद समर्पण/सेवक भाव
सौभाग्य से सद्गुरु मिले, वार्ता हुई, वार्ता के बाद फिर वार्ता हुई। श्रवण, मनन, निदिध्यासन हुआ, प्रश्न उत्तर हुआ। कई प्रश्नों के उत्तर मिले। समाधान हुआ। अध्यात्म की नयी परिभाषा मिली।
अस्तित्व, अनुभव, अनुभवकर्ता, अनुभव क्रिया जैसे नये शब्द और इन शब्दों के पीछे छिपा हुआ उनका गहरा अर्थ, ये सब पता चला। चित्त, चित्त की परतें, चित्तवृत्ति, चित्त के नियम का पता चला। ये सारा दृश्यमान जगत, वस्तुएं, शरीर, मन, भावनाएं, बुद्धि ये सब चित्त का ही खेल है, ये पता चला। आत्मन, साक्षी, चैतन्य स्वरूप का पता चला। आत्मज्ञान, अपने सत्य, नित्य स्वरूप का पता चला। फिर ब्रम्हज्ञान का पता चला।
अब पता चलता है कि मैं और मेरा ये कुछ नहीं है, चित्त में अहंकार की अहम वृत्ति है। जो कभी वस्तुओं पर, शरीर पर, मन पर जहां पर हो कह देती है ये मैं हूँ। उसका स्वामित्व ले लेती है।
ये अहम वृत्ति स्वामित्व ले कर, मुझ नित्य, सत्य, शुद्ध, बुद्ध, साक्षी, चैतन्य को पीछे कर देती है।
इसी कारण मानव जीवन भर शरीर बन कर, मन बन कर, जगत, वस्तुएं बन कर भटकता रहता है।
सद्गुरु संकेत करते हैं, ज्ञान दृष्टि देते हैं और पता चलता है मुझे मेरे नित्य, सत्य, शुद्ध, बुद्ध, साक्षी, चैतन्य स्वरुप का। मैं तो अनुभवकर्ता हूँ।
बाकी जिनको पहले मैंने मैं और मेरा कहा था वो अनुभव है। वो तो नाशवान है, परिवर्तन हो रहा है उसका। वो सब माया है।
ब्रम्हज्ञान में तो अद्भुत हो गया। ये सब तो अनुभवक्रिया है। वही है। अद्वैत है। अस्तित्व है। अनुभवकर्ता के रूप में स्वयं में होते हुए परिवर्तनों अर्थात अनुभव का साक्षी है।
अस्तित्व का तत्व निराकार, निर्गुण, असीम, समय और स्थान से पार, शून्य है।अनन्त सम्भावनाएं है यहां।
अस्तित्व आपने आप में सम्पूर्ण है। अज्ञेय है। मैं ही अस्तित्व हूँ।
सद्गुरु इस पूर्णत्व से साक्षात्कार करवा कर साधक को खींच कर अपने समक्ष खड़ा कर देता है। देखो मैं अस्तित्व हूं। तुम भी वही हो। ये सर्व अनुभव में आने वाला अस्तित्व ही है। ये साक्षी सर्व रूपों में अनुभव ले रहा है। सर्व में आते ही ये अत्यंत विस्मयकारी अनुभव हो रहा है। अब ये सारा भेद अभेद हो गया है। गुरु शिष्य एक। दृश्य दृष्टा एक। भगवान और भक्त एक ही अनुभव क्रिया, अस्तित्व में है। सारे ऋषि, मनीषी, विभूतियां, अवतार, सारे उसी अस्तित्व में। नाम और रूप परिवर्तनशील नाशवान, और उसमें साक्षी चैतन्य स्वरुप अविनाशी । सारे प्रश्न समाप्त, सारे प्रश्नों के उत्तर स्वतः प्राप्त हो गए। ये अनादि काल से हो रही अनुभवक्रिया निरंतर हैं।सूक्ष्म, सूक्ष्मतर से अनंत विराट सब अस्तित्व में।
श्री कृष्ण जी ने अर्जुन को जो दिव्यचक्षु दिए वो ज्ञानदृष्टि ही दी, इसी विराट अस्तित्व का साक्षात्कार बता कर करवाया। यही विश्वरूप है। सारे रूप इसी विराट विश्वरूप में हैं। ये सब दृश्यमान चित्तशक्ति ही है। जिस पटल अथवा पृष्टभूमि पर यह लीला, खेल निरंतर चल रहा है वो स्वयम साक्षी, आत्मन, दृष्टा है ।
ये दोनों शिव शक्ति स्वरुपा अस्तित्व है। ज्ञानी भी वही है।
यहाँ ज्ञानी जब अस्तित्व में स्थित होता है तो इस अद्भुत कौतुक में स्वयंमेव समर्पण हो जाता है। सम्पूर्ण अस्तित्व ही उसका गुरु रूप, अथवा गुरु ही सम्पूर्ण अस्तित्व.. ये भाव पक्का होते ही वो सेवक भाव/पद को प्राप्त करता है।
उसका करता भाव समाप्त हो जाता है।
रामायण में राम हनुमान से कहते हैं कि वो अनन्य है, मेरा ही रूप है जिसकी बुद्धि में सदैव यह पक्का भाव रहता है कि ये चराचर विश्व रूप ही मेरा स्वामी है, भगवान है, गुरु है, मैं उसका सेवक हूँ।
ये सेवक भाव विलक्षण है, जो पा गये वो धन्य हो गये। जो नहीं पाते वो उस अखंड आनंद से वंचित रहते हैं।
ॐ श्री गुरुवे नमः।
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जवाब देंहटाएंधन्यवाद शिवम जी
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सुंदर🌺🌺🙏🙏
जवाब देंहटाएंअच्छा लेख, बहुत बहुत
धन्यवाद🌺🌺🙏🙏
आपको बहुत बहुत धन्यवाद, लेख पढ़ने के लिए।
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Nice 👌
जवाब देंहटाएंधन्यवाद Suma जी ।
हटाएं🌹🙏🙏🌹
Sunder prastuti
जवाब देंहटाएंधन्यवाद शैल जी ।
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जवाब देंहटाएंअतिसुन्दर लेख के लिए बधाई 🌻🙏
जवाब देंहटाएंधन्यवाद डॉ राजेश्वरी जी ये लेख पढ़ने के लिए।
हटाएंगुरू कृपा है।
अद्वैत का अति सरल और सुंदर वर्णन परंतु लेख का अंत द्वैत पर लाकर खड़ा कर दिया।
जवाब देंहटाएंजी धन्यवाद ये लेख आपको अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएंजी आप सही कह रहे हैं, ये माइक्रो द्वैत हमें अद्वैत की सम्पूर्णता बताता है।