अस्तित्व - मनन
अध्यात्म के साधक को अस्तित्व का, अनुभव का, अनुभवकर्ता का, मनन अवश्य करते रहना चाहिए। निरंतर न हो तो भी दिन में एक बार अवश्य करना चाहिए। इससे हमारी चेतना बनी रहती है। हमारा भाव बना रहता है। मधुर आनंद की वर्षा होती रहती है।
जो भी है अस्तित्व है। अस्तित्व अपने आप में अद्भुत है, सम्पूर्ण है, चमत्कार है। विचित्र है। नैतिक अनैतिक अपने में समाहित किए हुए है। सुन्दर, असुन्दर सब समेटे हुए है। शब्दों से परे है।
ये चमत्कार नहीं है तो क्या है? कि ये अनुभवकर्ता और अनुभव की लय अवस्था, अनुभवक्रिया है। निरंतर लय अवस्था ही है। दोनों एक ही हैं अलग नहीं हैं। केवल समझने के लिए या समझाने के लिए ज्ञानी, गुरु अलग अलग करता है। समझाने के बाद फिर अस्तित्व में वापिस लाता है।
अनुभवकर्ता जो सत्य है, नित्य है, वो दिखता नहीं, उसकी अनुभूति नहीं। केवल साक्षी है। अनुभव जो परिवर्तन शील है, असत्य है, अनित्य है वही अनुभव में आता है। परन्तु अनुभवकर्ता के प्रकाश में ही अनुभव होते हैं। उसी की पृष्टभूमि में होते हैं। बड़े बड़े पंडित, बुद्धिमान यहां फंस जाते हैं।
लेकिन सद्गुरु अद्वैत में समझाने के लिए द्वैत का उपयोग करते हैं। अस्तित्व हो कर देखो तो सारे शब्द समझ आते हैं। ज्ञान दृष्टि से ही समझ आता है। ये ज्ञानदृष्टि प्रत्यक्षदर्शी, अनुभवी सतगुरु से ही प्राप्त होती है।
अन्यथा ऐसा भ्रम है कि जन्मों जन्मों तक जीव फँसा चला जाता है। भटकता रहता है। माया आकर्षित करके रखती है। जीव इतना भ्रमित होता है कि अपने तथाकथित इष्ट से वरदान भी माया का मांगता है, मायाधीश, अनुभवकर्ता को छोड़कर।
तो है न आश्चर्य!
इसको जानकर मेरा और मैं तो उसी अस्तित्व में समा गया।
मैं वही हूँ।
सद्गुरु कृपा है। उनका प्रसाद है।
बहुत सुन्दर लिखा है आपने।
जवाब देंहटाएं🙏🙏
धन्यवाद अश्विन जी।
हटाएंरमाकांत जी बहुत ही सुंदर लेख है। आपका बहुत बहुत धन्यवाद
जवाब देंहटाएंधन्यवाद योगेश जी।
जवाब देंहटाएं👍🌼🙏
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