बिनु पद चले, सुने बिनु काना....
(अनुभवकर्ता के कोई अपने पैर नही है फिर भी वो चलने का अनुभव करता है..)
सब अस्तित्व है, सब अस्तित्व में है। दृष्टा दृश्य सब इसी में है। ईश है तो उसका ऐश्वर्य भी उसी में है। प्रभु है तो उसका प्रभुत्व भी उसी में है।
ब्रम्ह है तो माया भी उसी में है। शिव है तो शक्ति भी उसी में है। सत्य असत्य दोनों उसी में हैं। अनुभवकर्ता है तो अनुभव भी उसी में है। जो अनुभवक्रिया है।ज्ञानी अस्तित्व या अनुभवक्रिया से एकाकार होकर ही पूर्णता को प्राप्त होता है। फिर उसके लिए माया भी ब्रम्ह का परिवर्तन शील स्वरुप है। अभेद दृष्टि हो जाती है। इस स्थिति में फिर शब्द पीछे छूट जाते हैं। परन्तु भाव को व्यक्त करने के लिए कुछ शब्दों का आश्रय तो लेना ही पड़ता है।
आइए तुलसीदास जी की रामचरित मानस की कुछ चौपाइयों का आनंद लेते हैं। जिसमें आत्मन, साक्षी की महिमा का वर्णन है, उनकी माया का भी वर्णन है। और उसी आत्मन और माया दोनों को, अस्तित्व को प्रभु रूप में स्वीकार किया है।
इस प्रसंग (बालकांड 1.1.110-111) में पार्वती शिव से प्रार्थना करती हैं कि 1. राम के विषय में बताएँ। 2. पहले तो बताए कि निर्गुण ब्रम्ह सगुण कैसे हो गया? 3. उस तत्व का भी बखान कीजिए प्रभु, जिसको जान कर ज्ञानी और मुनि जन उसके ध्यान में मगन रहते हैं। 4. भक्ति, ज्ञान, विज्ञान और वैराग्य के बारे में भी बतायें। 5. राम के अनेक रहस्यों को भी बतायें। 6. अगर मैंने जो कुछ नहीं भी पूछा, हे नाथ दया करके वो भी बतायें।
शिव उत्तर देना प्रारंभ करते हैं...(१.१.११२)
"झूठेउ सत्य जाहि बिनु जाने। जिमि भुजंग बिनु रजु पहचाने ॥"
राम को जाने बिना ये झूठा जगत ही सत्य प्रतीत होता है। उसी प्रकार से जैसे रस्सी को जाने बिना सर्प का भ्रम नहीं जाता।
"जेहि जाने जग जाए हैराई। जागे जथा सपन भ्रम जाई।"
राम वो हैं जिनको जानने के बाद सारा जगत उस प्रकार से विलुप्त हो जाता है जैसे जागने के बाद स्वप्न का भ्रम।
"सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा॥" (१.१.११५)
सगुण और निर्गुण में कोई भेद, अंतर नहीं है। यही मुनियों ने, बुद्धों ने, पुराण और वेदों में कहा है।
“अगुन अरुप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई॥"
"जो निर्गुण है, निराकार है, अलख है (जाना नहीं जा सकता), अजर है (अविनाशी है), वही राम, भक्त के प्रेम के वशीभूत होकर सगुण रूप धारण करते हैं।
"जो गुन रहित सगुन सोइ कैसें। जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसें॥"
जिस प्रकार जल, हिम(बर्फ), और ओले में कोई भेद नहीं है, एक ही है, उसी प्रकार से निर्गुण, सगुण ब्रम्ह एक ही हैं।
"निज भ्रम नहिं समुझहिं अज्ञानी। प्रभु पर मोह धरहिं जड़ प्रानी॥ जथा गगन घन पटल निहारी। झाँपेउ भानु कहहिं कुबिचारी॥"
अज्ञानी मनुष्य अपने भ्रम को तो समझते नहीं और वे मूर्ख प्रभु राम पर उसका आरोप करते हैं, जैसे आकाश में बादलों का परदा देखकर कुविचारी (अज्ञानी) लोग कहते हैं कि बादलों ने सूर्य को ढँक लिया।
" चितव जो लोचन अंगुलि लाएँ। प्रगट जुगल ससि तेहि के भाएँ॥ उमा राम बिषइक अस मोहा। नभ तम धूम धूरि जिमि सोहा॥"
जो मनुष्य आँख में उँगली लगाकर देखता है, उसके लिए तो दो चंद्रमा प्रकट (प्रत्यक्ष) हैं।
हे पार्वती! राम के विषय में इस प्रकार मोह की कल्पना करना वैसा ही है, जैसा आकाश में अंधकार, धुएँ और धूल का सोहना (दिखना)। (आकाश जैसे निर्मल और निर्लेप है, उसको कोई मलिन या स्पर्श नहीं कर सकता, इसी प्रकार भगवान राम नित्य निर्मल और निर्लेप हैं।)
"सब कर परम प्रकासक जोई। राम अनादि अवधपति सोई॥"
सबका जो परम प्रकाशक है, वही अनादि ब्रह्म अयोध्या नरेश राम हैं।
"जगत प्रकास्य प्रकासक रामू। मायाधीस ग्यान गुन धामू॥ जासु सत्यता तें जड़ माया। भास सत्य इव मोह सहाया॥"
यह जगत् प्रकाश्य है और राम इसके प्रकाशक हैं। वे माया के स्वामी और ज्ञान तथा गुणों के धाम हैं। जिनकी सत्ता से, मोह की सहायता पाकर जड़ माया भी सत्य-सी भासित होती है।
" रजत सीप महुँ भास जिमि जथा भानु कर बारि। जदपि मृषा तिहुँ काल सोइ भ्रम न सकइ कोउ टारि॥ 117॥"
जैसे सीप में चाँदी की और सूर्य की किरणों में पानी की (बिना हुए भी) प्रतीति होती है। यद्यपि यह प्रतीति तीनों कालों में झूठ है, तथापि इस भ्रम को कोई हटा नहीं सकता॥ 117॥
" एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई। जदपि असत्य देत दु:ख अहई॥ जौं सपनें सिर काटै कोई। बिनु जागें न दूरि दु:ख होई॥"
इसी तरह यह संसार भगवान के आश्रित रहता है। यद्यपि यह असत्य है, तो भी दुःख तो देता ही है, जिस तरह स्वप्न में कोई सिर काट ले तो बिना जागे वह दुःख दूर नहीं होता।
" जासु कृपाँ अस भ्रम मिटि जाई। गिरिजा सोइ कृपाल रघुराई॥ आदि अंत कोउ जासु न पावा। मति अनुमानि निगम अस गावा॥"
हे पार्वती! जिनकी कृपा से इस प्रकार का भ्रम मिट जाता है, वही कृपालु रघुनाथ हैं।जिनका आदि और अंत किसी ने नहीं (जान) पाया।
वेदों ने अपनी बुद्धि से अनुमान करके इस प्रकार (नीचे लिखे अनुसार) गाया है -
"बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ बिधि नाना॥ आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड़ जोगी॥"
वह (ब्रह्म) बिना पैर के ही चलने का अनुभव लेता है, बिना कान के ही सुनने का अनुभव करता है। बिना हाथ के ही नाना प्रकार के काम करने का अनुभव लेता है, बिना मुँह (जिह्वा) के ही सारे (छहों) रसों के आनंद का अनुभव लेता है और बिना वाणी के बहुत योग्य वक्ता होने की भी अनुभूति करता है।
"तन बिनु परस नयन बिनु देखा। ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा॥ असि सब भाँति अलौकिक करनी। महिमा जासु जाइ नहिं बरनी॥"
वह बिना शरीर (त्वचा) के ही स्पर्श का अनुभव करता है, आँखों के बिना ही देखने का अनुभव लेता है। और बिना नाक के सब गंधों को ग्रहण करने का अनुभव करता है (सूँघता है)। वह ब्रह्म सभी प्रकार से अलौकिक है कि जिसकी महिमा कही नहीं जा सकती।
"सोइ प्रभु मोर चराचर स्वामी। रघुबर सब उर अंतरजामी॥"
(हे पार्वती!)वही मेरे प्रभु रघुश्रेष्ठ राम जड़-चेतन के स्वामी और सबके हृदय के भीतर की जाननेवाले हैं। यहाँ पर राम के आत्मन, ब्रम्हन रूप का अद्भुत वर्णन है। माया का वर्णन है। और फिर एकता दर्शायी गयी है।
ऐसे ही राम एक प्रसंग में हनुमान से निम्न वचन कहते हैं... (किष्किंधाकांड)
"सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ हनुमंत। मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत॥3॥"
हे हनुमान! अनन्य (वो और मै एक ही है दूसरा नही है) वही है जिसकी ऐसी बुद्धि कभी नहीं टलती कि मैं सेवक हूँ और यह चराचर (जड़-चेतन) जगत् मेरे स्वामी भगवान् का विश्वरूप है, अस्तित्व है॥3॥
बहुत ही सुंदर लेख है, राम चरित मानस के इतने सुंदर श्लोकों को आपने सरल भाषा में समझाया इसके लिए आपका धन्यवाद 🙏🏻🌸
जवाब देंहटाएंधन्यवाद शुभम जी । गुरू कृपा है ।
हटाएंअति सुंदर व्याख्या
जवाब देंहटाएंधन्यवाद शैल जी। गुरू कृपा से ही ये सम्भव है।
हटाएंबहुत सुंदर 🙏🏻
जवाब देंहटाएंधन्यवाद अक्षता जी ।
हटाएंबहुत सुन्दर व्याख्या की है आपने 🙏🙏 ज्ञान की वर्षा हो रही है, रमाकांत जी।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद जी । सब गुरु कृपा है ।
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंधन्यवाद जी । सब गुरु कृपा है ।
हटाएंबहुत सुन्दर रुप से आपने वर्णन किया है।
जवाब देंहटाएं🙏🙏
धन्यवाद अश्विन जी । सब गुरु कृपा है ।
हटाएंज्ञान सागर गागर में..प्रणाम तुलसी ..धन्यवाद भाई जी..
जवाब देंहटाएंबहुत धन्यवाद अश्वनी जी।
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