रविवार, 27 मार्च 2022

अज्ञानी का उल्टा (विपरीत) ज्ञान

अज्ञानी का उल्टा (विपरीत) ज्ञान

अज्ञानी को सदैव विपरीत आभास होता है। वो जगत को ही सत्य समझता है। इसी को स्थायी समझता है। इसी के कारण उसका सारा एकत्र किया हुआ ज्ञान उल्टा अर्थात विपरीत ज्ञान है, अर्थात अज्ञान है। इसीलिए वो अज्ञानी है।

यहां समस्या ये है कि अज्ञानी को ये भान नहीं होता कि उसका सारा एकत्रित किया हुआ तथाकथित ज्ञान वास्तव में अज्ञान है। और आश्चर्य ये कि अज्ञान दिन प्रति दिन, माह प्रति माह, वर्ष प्रति वर्ष, जन्म जन्मांतर परत दर परत एकत्रित होता रहता है।

अज्ञानी का हाल उस पथिक सा है जो अपने घर के पास से निकलने वाली सड़क पर पूर्व दिशा में स्थित गंतव्य पर जाने के लिए पश्चिम की ओर निकल पड़ा। उसे पता भी नहीं है कि वो विपरीत दिशा में चला जा रहा है। 

इसका कारण भी विचित्र है। इसको समझने के लिए अस्तित्व का विचार करते हैं। अस्तित्व संपूर्ण है, सत्य असत्य, नैतिक, अनैतिक सब इसी में है, सबको अपने में समाहित किए हुए है। इसका सत्य, नित्य, आत्मन, अविनाशी स्वरूप का अनुभव नहीं हो सकता क्योंकि इसका तत्व निराकार, निर्गुण, असीम एवं शून्य है, जिसमें अनंत संभावनाएं हैं।

अस्तित्व का दूसरा भाग परिवर्तन शील, असत्य, नाशवान सदैव अनुभव में आने वाला है, इसी का अनुभव होता है। यही माया है। ये संसार, वस्तुएं, शरीर एक माया है। शरीर की इंद्रियां दोहरी माया है। आंतरिक और सूक्ष्म इंद्रियां तिहरी माया है। इस माया की विलक्षणता, इसकी अनंत प्रकट लीलाएं ऐसा भ्रम पैदा करती हैं कि जीव जन्मों जन्मों तक उसके चक्र में मूर्ख बन कर फंसा रहता है। एक और विशेषता कि जीव मूर्ख बना हुआ है लेकिन वो अपने को बुद्धिमान  समझता है। 

इसको जानने के लिए आध्यात्मिक दृष्टि चाहिये, ज्ञान दृष्टि चाहिये। माया की माया की जानकारी और समझ होनी चाहिए।

अज्ञानी का अज्ञान कैसे एकत्र होता है, इसको जानते हैं।

उसने मिथ्या भ्रम पाला हुआ है कि मैं ही शरीर हूँ, मन हूँ, बुद्धि हूँ। मेरा घर, मेरा परिवार, मेरा समाज, मेरा देश अर्थात ये मैं और मेरा यही सत्य है। ये जगत सत्य है।

ये विपरीत भान उसके अज्ञान को बढ़ाता चला जाता है। उसकी स्मृति इसी अज्ञान से भरती चली जाती है।

ये जानकारी (अज्ञान) उसे

बचपन से ही माता-पिता से,

अन्य परिजनों से 

आगे बड़े होकर विद्यालय से

मित्रों से, 

स्कूल कालेज से 

समाज से प्राप्त कर्ता है और

आसपास के वातावरण से एकत्र करता है।

सत्य समझ कर एकत्रित करता है।

इसी अज्ञान की मान्यताएं बना लेता है।

इसको अपनी बुद्धि से कभी विचारा नहीं, अपने अनुभव से परखा नहीं समाज से, नेताओं से, शिक्षकों से, पुस्तकों से सुना, पढ़ा और मान लिया।

माया को सत्य मान कर अनेक अवधारणाएं बना लेता है और पूरा जीवन व्यर्थ कर देता है।

किसी ने कह दिया उसकी पूजा करो ये लाभ मिलेगा, बिना विचार किए शुरू कर देता है। जिसकी पूजा की उसका वास्तविक रूप क्या है पता नहीं। 

इसी प्रकार भक्ति करते हैं, ध्यान करते हैं, किसका कर रहे हैं, उसका लक्ष्य क्या है, उसका फल क्या है पता नहीं। स्मरण किसका कर रहे हैं भगवान का, भगवान कौन है,उन्होंने अपने बारे में क्या कहा है पता नहीं।

अब इस प्रकार सारे कर्म, जानकारियां अज्ञानता रूपी धुएं, धुंध वा बादलों की इतनी गहरी परतें बनाते हैं सत्य, आत्मन के तेज, ज्ञान रूपी सूर्य को आच्छादित कर अंधकार में ही जीवन व्यतीत करते हैं।

यही सब अज्ञानी का उल्टा (विपरीत) ज्ञान है। 

अज्ञान है। विडंबना यह है कि वो इस अज्ञान को ज्ञान समझता। इस प्रकार भटकता रहता है। इसी क्षणिक सुखों के पीछे भागता रहता है। 

जब तक कि इस संसार के दुःखों का, कष्टों का, भ्रम जाल का, बंधन का, मिथ्या का आमना सामना नहीं होता। इसके बाद ही बुद्धि घूमती है समाधान खोजती है। 


तो अज्ञानी के उल्टे ज्ञान की यही कहानी है। 


गुरुदेव को शत शत नमन जिनकी कृपा से मिथ्या की मिथ्या का ज्ञान मिलता है और सत्य आत्मन रूपी सूर्य का उदय हो प्रकट होता है। 


ऊँ श्री गुरुवे नमः 🙏🙏🏵️

19 टिप्‍पणियां:

  1. माया की जड़ें गहरी हैं।
    बहुत सुंदर लेख है।

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  2. ज्ञान पर स्थिर नहीं हुआ जा सकता लेकिन अज्ञान को देख सकते हैं। यहीं एक मार्ग है अपने को जानें, अपने अहम को समझें

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    उत्तर
    1. जी, धन्यवाद, कुँवर सिंह जी, सही कह रहे हैं आप। 🙏🙏🌹🌹

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